Saturday, January 14, 2012

विजय श्री !

विजय श्री !
एक मल्लिका,
सबको अकर्सित करती,
अपने पे इठलाती,
सबको को अधीन कर,
तप जप और उपासना करवाती |
अधीर को उद्देश्य दे,
बार बार प्रयास करवाती |
प्रेमी,
प्रयास कर,
प्रवीण होकर,  
उपासना का प्रसाद पाकर |
स्वप्न को साकार कर,
सफलता के सिंघासन पे, 
सुंदरी "विजय श्री" का पाश पाकर,
धन्य हो जाता,
और
नवीन युग का आरंभ करता |
  

2 comments:

  1. Agree Saurabh. I never knew his this part. Now I think he is in wrong profession :)

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