Saturday, March 31, 2012

ये जिंदगी !!

रिश्तो के पहाड़ पर खड़ी
कर्तव्य की परिधि में बंधी
पैसो के टुकड़ो से बनी
सबने ने ठोकरों से गिनी
ये जिंदगी!
 
शिखर और गर्त में चली
अपने और आपनो के सपनो 
को साकार करने चली
'नवीन' युग की चाह में बढ़ी
ये जिंदगी !

हस्र क्या होगा न जाने
बस कर्म के सहारे चलती
परिणाम का पता नहीं 
तभी तो एक धूत क्रीडा है 
ये जिंदगी !

कभी दूसरो के इशारों पे
तो कभी आपनी शर्तो पे चली
कभी डरावने रूप में होती
तो कभी बहुत खूबसूरत है
ये जिंदगी !
 

क्या यही प्रगति की परिभाषा है?

क्या यही प्रगति की परिभाषा है?
क्या यही हमारी आशा है ।

वन बाग़ बगीचे नाश किया
पेंड़ो का खूब संहार हुआ,
हरयाली को भी स्वप्न किया
कंक्रीट का जंगल खड़ा किया।
क्या यही प्रगति की परिभाषा है?

प्राण वायु को दूषित कर,
आगे बदने की अभिलाषा है,
जिस औदोगिक्ता की आंधी में,
जीवन विनाश की आशा है
क्या यही प्रगति की परिभाषा है?

हर जगह रसायन मिला रहे,
जहर दूध में हम पिला रहे ।
छाछ मलाई छोड़ के हम
पेप्सी कोला अपनाते है ।
क्या यही प्रगति परिभाषा है ?

क्या ये नवयुग की आशा है ?
क्या यही प्रगति परिभाषा है ?