Tuesday, September 28, 2021

"......... मरे करे श्राद्धा।।।

".........  मरे करे श्राद्धा।।। 

ये कहावत मैंने कई बार लोगो को बोलते हुए सुना है जब कोई अनायास किसी की मृत्यु के बाद के कार्यक्रम में भारी खर्च से परेशान हो जाता है और उसे अपने के खोने का गम भी भरी पड़ने लगता है। 

आज के दिखावे के युग में लोग अपने बुजुर्गो के श्राद्ध कर्म के नाम पे बड़े बड़े भंडारे करते है, खूब धन दान में खर्च करते है । किन्तु क्या इतने ही आदर भाव से अपने घर के बुजुर्गो की सेवा इन्होने की होती है? शायद नहीं, यदि ऐसा होता तो सायद ही हमारे देश के वृद्धाश्रम बुजुर्गो से भरे नहीं होते।  जहा कई बार पहचान की दर से बुजुर्ग दूसरे शहरो में जा कर बृद्धाश्रमो में रहते है। 

आज अनायास ही श्राद्ध कर्म और पितृ ऋण से मुक्ति के लिए पितृ पक्ष में गया की यात्रा, पिंड दान और भंडारे की वैधानिकता पर उहापोह की मनः स्थिति बन गयी है । यह सब हर कोई या तो अपने प्रिय के हेतु श्रद्धा से करता है या कई बार केवल समाज में दिखावे के लिए। काश ! समाज में द्वितीय श्रेणी के लोग यह समझ पते की यदि वे लोग अपने बुजुर्गो को जीते जी सेवित करते और यदि बुजुर्गो को आत्मिक सुख मिलता तो ऐसे लोगो को संभवतः अवश्य ही पितृ ऋण और पितृदोष से मुक्ति मिल जाती। 

जैसा की कहा गया है की "नर सेवा नारायण सेवा" से यह सिद्ध होता है की जीते जी बुजुर्गो की सेवा अवश्य ही श्राद्ध से अधिक फलदायी है। ऐसा करने से न केवल पितृ ऋण और पितृ दोष से मुक्ति होगी अपितु यह साक्षात् नारायण की सेवा के सामान फलदायी है।